एक जिंदादिल लेखक की जीवंत दास्तां

खुशवंत सिंह लिटरेरी फेस्टिवल

रूपिंदर सिंह

Khushwant Singh

एक स्तंभकार, इतिहासकार, राजनयिक, पत्रकार, अधिवक्ता एवं प्रकाण्ड विद्वान के रूप में खुशवंत सिंह ने अपार यश अर्जित किया है। वर्तमान में 97 वर्ष की उम्र में भी वे अपनी शर्तों पर जीते हैं। उन्होंने जीवन में जो चाहा, वह हासिल किया। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि देश में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले इस लेखक की शान में कसौली में आयोजित हो रहे ‘खुशवंत सिंह लिटरेरी फेस्टिवल’ में वे उपस्थित नहीं हो पायेंगे।
देश के लाखों पाठक उनके स्तंभों तथा तमाम भाषाओं में अनुवादित लेखों के जरिये रू-बरू होते हैं। निश्चय ही उनकी पुस्तकों ने भारतीय साहित्य की विरासत को समृद्ध किया है और सिख धर्म से जुड़ी अध्ययन सामग्री को नयी ऊंचाइयां दी हैं। उनकी रचनाओं से विवाद जुड़े, उन्होंने जीवन को पूर्णता के साथ जीया और एक नया अध्याय उनके जीवन के साथ और जुड़ गया है कि उनके रहते हुए, उनके नाम पर ‘खुशवंत सिंह लिटरेरी फेस्टिवल’ उनके ही पसंदीदा पर्वतीय स्थल कसौली में कल से शुरू हुआ है।
खुशंवत सिंह की प्रारंभिक पढ़ाई माडर्न स्कूल, दिल्ली से शुरू हुई। कालांतर उन्होंने सेंट स्टीफन कालेज, दिल्ली में आगे की पढ़ाई की। लेकिन वहां उन्होंने किताबी ज्ञान के बजाय टेनिस में ज्यादा रुचि दिखाई। यहां कला विषय के साथ इंटरमीडियट करने के उपरांत कानून की पढ़ाई की उत्कंठा उन्हें किंग्स कालेज लंदन ले गई। जहां उन्होंने एलएलबी की डिग्री हासिल की। वहां उनकी मुलाकात उनके भावी जीवनसाथी से हुई। कवल मलिक उनकी स्कूल की सहपाठी थी और सर तेजा सिंह मलिक की बेटी थी। उन्होंने उसके रूप-लावण्य के बजाय गुणों को प्राथमिकता दी। इस दौरान इंग्लैंड में जीये बिंदास जीवन का ईमानदारी से अपनी आत्मकथा ‘ट्रुथ, लव एंड लिटिल मैल्टस’ में उल्लेख किया है। उन्होंने अपने जीवन को साफगोई के साथ पाठकों तक साझा किया है। भारत लौटने के बाद खुशंवत सिंह ने कोशिश की कि वे सफल अधिवक्ता के रूप में स्थापित हों, लेकिन उन्हें इसमें खास सफलता नहीं मिली। हालांकि उन्होंने इस दौरान अपना अधिकांश समय उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी लाहौर में प्रतिष्ठित रचनाकारों और नामचीन साहित्यकारों के साथ बिताया।
विभाजन के उपरांत उन्हें लाहौर से दिल्ली आना पड़ा। कानून से वास्ता टूटा और साहित्य से जुड़ाव हुआ। फिर उन्होंने अपना ध्यान साहित्य पर केंद्रित किया। उन्होंने जो देखा और जो लाहौर में छूटा वह उनकी कहानी की विषय-वस्तु बनी। इस पर लिखी कहानी ‘मानो माजरा’ पर उन्हें ग्रोव प्रेस से एक हज़ार डॉलर का पुरस्कार मिला। ‘मानो माजरा’ गांव की कहानी कालांतर ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ के नाम से चर्चित हुई जो पहली बार जनवरी, 1956 में प्रकाशित हुई। इससे उन्हें अपार ख्याति मिली। संयोगवश, डीएच लॉरेंस द्वारा लिखिल ‘लेडी चाटेरले’स लवर’ का अपरिशोधित संस्करण इसी प्रेस से 1959 में प्रकाशित हुआ था जिस पर खासा विवाद हुआ। बाद में प्रकाशक की जीत हुई।
कालांतार, तमाम अन्य लेखकों की तरह प्रारंभिक विवादों से इतर खुशंवत सिंह ने खुद को एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में स्थापित किया। बाद में जब उन्होंने सिख धर्मग्रंथों के अनुवाद और यूनेस्को के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया तो उन्हें खासी प्रतिष्ठा मिली। इस दौरान वे अपने बेटे राहुल व बेटी माला के साथ पेरिस में रहे। लेकिन दो वर्ष बाद ही आगे बिना किसी नौकरी के होते हुए उन्होंने यह काम छोड़ दिया। कालांतर वे भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘योजना’ के संपादक बने। यह उनके मनोभावों के अनुकूल न था और वे बहुत कुछ नहीं कर पाये।
इसके उपरांत रॉकफेलर फाउंडेशन के सहयोग से उन्होंने ‘ए हिस्ट्री ऑफ सिख्स’ लिखी। इसके अलावा महाराजा रणजीत सिंह की आत्मकथा और ‘एंग्लो सिख वॉर्स’ पुस्तकें भी उन्होंने लिखी। इस प्रोजेक्ट पर खुशवंत सिंह ने चार साल लगाये। इसी दौरान उन्होंने हवाई समेत कई अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापन का कार्य भी किया। उनके इस कार्य में शोध व सुबोधगम्यता ने इन रचनाओं की पठनीयता बढ़ाई। एक लेखकीय अनुशासन रचनाओं में परिलक्षित हुआ जो रचनाओं की समकालीन व रूढि़मुक्त छवि बनाते हैं। इसके साथ ही रचनाओं ने उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी क्योंकि ये त्रुटिमुक्त व प्रमाणिक कार्य जो था। जहां तक उनके पुत्र राहुल सिंह का प्रश्न है तो उसने पिता के व्यवसाय का अनुकरण करना पसंद किया। उन दिनों जब खुशवंत सिंह को ‘दि इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ के संपादन का दायित्व मिला तो राहुल ‘दि टाइम्स ऑफ इंडिया’ के सहायक संपादक के रूप में पांच साल तक कार्य करते रहे। कालांतर राहुल ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ के पहले भारतीय संपादक बने। जब खुशवंत सिंह की धर्मपत्नी कवल दिल्ली नहीं छोडऩा चाहती थी तो वे पेइंग गेस्ट बनकर रहे जबकि राहुल के पास पहले से ही मुंबई में घर था।
खुशवंत सिंह के संपादन में ‘दि इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ को नई प्रतिष्ठा मिली। इस बात का प्रमाण यह है कि इस साप्ताहिक पत्रिका की प्रसार संख्या एक लाख से चार लाख हो गई। उन्होंने पत्रकारिता के गुरु के रूप में देश को एमजे अकबर, बची काकरिया, बिक्रम वोहरा, जेआईएस कालरा पत्रकार दिये जो कालांतर में सफल संपादक बने। राजनीतिक दबाव के चलते इस पद से अप्रत्याशित ढंग से हटाने जाने से पूर्व उन्हें संपादक के रूप में शिखर की सफलता मिली। कालांतर वे उस दिल्ली शहर में लौट आये जिसे संवारने में उनके पिता सर शोभा सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके बाद उन्होंने दि नेशनल हेरॉल्ड व हिन्दुस्तान टाइम्स का सफलतापूर्वक संपादन किया।
खुशवंत सिंह व विवादों का चोली-दामन सरीखा रिश्ता रहा है। उनके कॉलमों में प्रकाशित होने वाले गॉसिप में कामुक विवरण, स्त्रियों के रोचक प्रसंग, स्कॉच प्रेम बखूबी जगह पाते रहे हैं। इन स्तंभों के जरिये वे मजाकिया अंदाज़ में पाखंडी सोच पर तीखे तंज़ करते रहे।
साहसिक खुशवंत सिंह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रशंसक जरूर थे, लेकिन आपातकाल का उन्होंने मुखर विरोध किया। वे संजय गांधी व उसकी पत्नी मेनका गांधी को पसंद करते थे, लेकिन इंदिरा गांधी की नाराजगी के चलते उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। जबकि दूसरी तरफ मेनका गांधी ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके खुशवंत सिंह की आत्मकथा के प्रकाशन को पांच साल तक रुकवाये रखा।
वे उन लोगों में शामिल थे जो संत जरनैल सिंह भिडरांवाले व चरमपंथियों के विरुद्ध मुखर थे। वे चरमपंथियों की हिट-लिस्ट में थे जो उन्हें कांग्रेस का पिट्ठू बताते थे। खुशवंत सिंह वर्ष 1980-86 तक राज्यसभा के सदस्य रहे।
दूसरी तरफ उन्होंने तमाम लोगों को तब नाराज कर दिया जब उन्होंने पद्मभूषण लौटा दिया। ऐसा उन्होंने ब्लू स्टार आपरेशन के खिलाफ किया। हालांकि, वर्ष 2007 में उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया जिसे उन्होंने आदर के साथ स्वीकारा। वे महात्मा गांधी व मदर टेरेसा के अनन्य उपासक रहे लेकिन कई मुद्दों पर असहमत भी नज़र आये।
देश के लाखों पाठक खुशवंत सिंह के साप्ताहिक कॉलम को नियमित रूप से पढ़ते हैं। ‘दिस अबव ऑल’ दि ट्रिब्यून में साप्ताहिक रूप से तथा अन्य भाषाओं के समाचारपत्रों में प्रकाशित होता है। इसी प्रकार हिन्दुस्तान टाइम्स में भी स्तंभ प्रकाशित होता है।
उनमें सामान्य पाठकों तक पहुंचने की अद्भुत क्षमता है। वे समकालीन विषयों पर सूचना देते हैं और मनोरंजन करते हैं। वे हंसाते हैं, विवादों को जन्म देते हैं तथा मुद्दों पर बेबाकी से राय देते हैं। अपने पाठकों से गहरे जुड़ाव के कारण वे देश में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले स्तंभकार हैं। अनेक पाठक उन्हें पत्र लिखते हैं लेकिन उन्हें सुखद आश्चर्य होता है जब उन्हें उनके द्वारा हस्तलिखित जवाबी पोस्टकार्ड मिलता है। उनका कहना है, ‘मैं उस हर पत्र का जवाब देने का प्रयास करता हूं जो मुझे भेजा जाता है।’
वे केवल स्कॉच व्हिस्की पीने के लिए जाने जाते हैं, खासकर सिंगल मॉल्ट। किसी का आतिथ्य स्वीकार करने पर यदि उन्हें अपना ब्रांड नहीं मिलता तो वे अपनी व्यवस्था करते हैं। अपने मेहमानों का भी इसी से स्वागत करते हैं। वे रात्रिभोज के मामले में समय के पाबंद हैं। वे जल्दी खाना खत्म कर लेते हैं। अब चाहे पार्टी घर में  हो या फिर पार्टी राजीव गांधी सरीखे विशिष्ट व्यक्ति की रही हो।
वे सुबह जल्दी उठ जाते हैं और हर सुबह लिखते हैं। वे अपनी समय-रेखा का सख्ती से अनुपालन करते हैं। वे प्रकृति और पक्षियों, पेड़ों, फूलों के बारे में गहरी जानकारी रखते हैं। वे एक अनुशासित व्यक्ति हैं। वे लंबे समय तक दिल्ली के जिमखाना क्लब में टेनिस खेलते रहे। उनकी पत्नी कवल हमेशा उनका साथ देती रही। उनकी एक स्वतंत्र प्रवृत्ति के इस व्यक्ति की पसंद-नापसंद के बारे में स्पष्ट धारणा रही है। वह इस परिवार की सफलता के पीछे की ताकत बनी रहीं, जिसके लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगाया। कवल का देहांत वर्ष 2002 में अल्जाइमर रोग से जूझते हुए हुआ। जो भी खुशवंत सिंह की जीवनयात्रा के बारे में सुनता या पढ़ता है या फिर उनसे रू-बरू होता है, उसके लिए वह एक यादगार पल बन जाता है। कई लोग उनसे इतने प्रेरित होते हैं कि जीवनधारा की दिशा ही बदल जाती है। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी शर्तों पर जीया हो तथा जिसने रचनाधर्मिता को गति देने वाली स्याही को कभी न सूखने दिया।

 

This article was published in Dainik Tribune on October 13, 2012

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